चित्त अशुद्ध क्यों होता है – चित्त और आत्मा को शुद्ध करे, वही आत्मज्ञान
चित्त अशुद्ध क्यों होता है ? जो हो चुका उसकी स्मृति और जो नहीं है उसके चिंतन से चित्त अशुद्ध होता है। बात जरा सूक्ष्म है। जो हो चुका वह प्रसंग, वह परिस्थिति, वह वस्तु अब उस रूप में नहीं रही। वह केवल हमारी स्मृतियों में बची है। बचपन हो चुका, पुण्य हो चुका, पाप हो चुका, दुख हो चुका। सास-बहू का झगड़ा हो चुका। झगड़ा करते समय चेहरा जैसा बना था, वैसा अब नहीं रहा। वह आवेश नहीं रहा। अब केवल उसकी स्मृति है कि चार दिन पहले झगड़ा हुआ था।
अब स्मृति को मान्यता देंगे, स्वीकृति देंगे तो चेहरा फिर वैसा होने लगेगा। स्मृति को मान्यता नहीं देते तो उस घटना का प्रभाव नहीं रहता। हर घटना की लकीरें चित्त पर खिंचती हैं। जैसे किसी खाली कैसेट में तुम फिल्म का गाना भरो, मृदंग की ध्वनि भरो, चाहे हरिभजन भरो, लेकिन उसमें लकीरें पड़ेंगी। वह कैसेट पहले जैसा साफ और कोरा नहीं रहेगा। उसे साफ रखने के लिए क्या करें? उसमें फिल्म का गाना भी नहीं भरो, मृदंग भी नहीं भरो और भजन भी नहीं, उसे ऐसे ही प्लेयर में से गुजर जाने दो। तब तुम उसकी शून्यता महसूस कर सकोगे।
ऐसे कैसेट का क्या लाभ है- यह एक अलग सवाल है। लेकिन कोरे कैसेट में जो शून्य है, जो ध्वनि विहीनता है, यदि उसे महसूस करना है, तो उसे ऐसे ही चलाना होगा। लेकिन रिकॉर्डिंग का कैसेट तो ऐसे गुजर सकता है, परंतु चित्त रूपी कैसेट का ऐसे गुजरना संभव नहीं है। अतः चित्त में अहं ब्रह्मास्मि… और तत्वमसि का चिंतन होने दो। अन्य किस्म के चिंतन से चित्त मलिन होगा, लेकिन आत्मचिंतन से वह शुद्ध होगा।
आत्म साक्षात्कार से यह बोध हो जाएगा कि स्मृतियों और संबंधों के आधार पर चित्त वस्तुओं को अपने पर अंकित करता है। लेकिन चित्त को निकम्मा भी मत छोड़ो। बेकार चित्त बंधन के जाल बुनता है। अतः चित्त को बढ़िया काम देते रहो। जब तक चित्त की शुद्धि नहीं है, तब तक एकांत में जाकर बैठेंगे तो वह अपने भीतर और गहरी रेखाएं बना लेगा। जिसके साथ राग है,
उसका चिंतन करके राग को और गहरा करेगा। जिसके साथ द्वेष है। चिंतन करके द्वेष को और भड़का देगा। अतः जब किसी के साथ झगड़ा हो जाए खुश अशांति हो जाए, दुश्मनी हो जाए तो एकांत में न जाकर उसी को खुश करने का कार्यक्रम चालू कर दो। अजीब सलाह है, जिससे शत्रुता हो जाए, उसी को करें ? हां, यही वीरता है। यही पुरुषार्थ है कि जिसके लिए बुरे विचार आएं उसी के हित का चिंतन करो। सोचो कि उसका भला कैसे हो, मंगल कैसे हो ?
चलते-चलते पैर में कांटा घुस गया। रात को वह पीड़ा दे रहा है। अब सोचते हैं कि पैर की पीड़ा कैसे दूर हो । कांटा निकालने से ही दुख दूर होगा, उसे और अधिक भीतर चुभोने से तो नहीं। इसी प्रकार किसी से टक्कर हो गई, द्वेष हो गया और उसको नष्ट करने की सोचते हो तो लगा हुआ कांटा और गहरा चुभो रहे हो। आप उसका बुरा सोच रहे हो और वह आपका बुरा सोच रहा है तो दोनों के चित्त ज्यादा अशुद्ध होंगे। आप उसका कल्याण सोचना शुरू कर दो तो आपके हृदय से शूल निकल जाएगा।
आप अपने शत्रु का कल्याण सोच रहे हों और वह आपका अकल्याण सोच रहा है, तो वह सफल नहीं होगा। आवेश में आकर वह आपका अहित कर भी बैठे, लेकिन आपके हृदय में उसके प्रति हित की भावना है तो उसका हृदय परिवर्तन हो जाएगा। सामने वाला कैसा भी व्यवहार करे, लेकिन आपके चित्त में उसकी स्वीकृति नहीं है, आप लेते नहीं हैं उसके द्वेष की बात को, तो उसका द्वेष आगे चलेगा नहीं। आपने पटरियां बनाईं ही नहीं उसके द्वेष की गाड़ी चलने के लिए।
कोई आदमी किसी के लिए फरियाद करता है या किसी से दुखी होता है तो यह उसकी अपनी कमजोरी है, सामने वाले का दोष नहीं। सामने वाले की जैसी बुद्धि होगी, वैसा आचरण करेगा ही। जब तक अपनी कमजोरी रहेगी, तब तक परेशान करने वाले लोग कहीं न कहीं मिल ही जाएंगे। अतः हमें स्वयं को ठीक करना है। हमारे चित्त में जो व्यर्थ चिंतन होता है, वही हानिकारक है। और दुख मिटाने का अपने को ठीक करने के सिवाय और कोई उपाय नहीं।
Atynat gudh jankari di he aapne ..adbhoot